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चौबीसवाँ सूक्त
उद्धारक और रक्षकके प्रति
[ ऋषि बुराईसे रक्षणके लिए और दिव्य प्रकाश द सारतत्त्व (वसु) की पूर्णता प्राप्त करनेके लिए भगवत्संकल्पका आवाहन करता हे । ] १-२ अग्ने त्वं नो अन्तम उत त्राता शिवो भवा वरूथ्य: । वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छा नक्षि द्युमत्तमं रयिं दा: ।।
(अग्ने) हे संकल्परूप अग्निदेव ! (त्वं नः अन्तम: भव) तू हमारा अन्तरतम सहवासी बन (उत) और तू हमारे लिए (शिव:) कल्याणकारी हो, (त्राता) हमारा उद्धारक बन, (वरूथ्य:) हमारे रक्षणका कवच बन । (वसु:) पदार्थोंके सारतत्त्वका स्वामी और (वसु-श्रवा:) उस सार-तत्त्वका दिव्यज्ञान रखनेवाला तू (अच्छ नक्षि) हमारे पास आ और (नः) हमें (द्युमत्तमं रयिं) अपने सारतत्त्वकी अत्यन्त प्रकाशमय समृद्धि (दा:) प्रदान कर । ३-४ स नो बोधि श्रुधी हवमुरुष्या णो अधायत: समस्मात् । तं त्वा शोचिष्ठ दीदिव: सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्य: ।।
(स:) वह तू (बोधि) जाग ! (नः हवं श्रुधि) हमारी पुकार सुन ! (न:) हमें (समस्मात् अघायत:) उन सबसे जो हमें अशुभ व बुराईकी ओर प्रवृत्त करना चाहते हैं (उरुष्य) दूर रख । (दीदिव:) हे ज्योतिर्मय ! (शोचिष्ठ) हे पवित्रतम प्रकाशकी ज्वाला ! (तं त्वा) उस तुझको हम (सखिभ्य:) अपने मित्रोंके लिए (ईमहे) चाहते हैं ताकि वे (नूनम्) अभी ही (सुम्नाय) आनन्द और शान्ति प्राप्त करें । ११०
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